Monday, January 13, 2014

खिचड़ी

हमारे भले नेता ,भले पांच साल दिखे पर किसी भी त्योहारों में ये ऐसे नज़र आते हैं जैसे की त्योहारी मांगने आये हैं, मकर संक्रांति पर खिचड़ी वितरण का कार्यक्रम जोरो से होता है। मैंने  भी खाई और फिर ये खिचड़ी तैयार हुई आपके लिये…। 

मैंने कहा नेता जी खिचड़ी तो भायी है 
खिचड़ी  मगर    ये कैसे     बनायी है 
नेता बोले खिचड़ी ये राजनीती वाली है 
इसमें   देखो    क्या चीज़ भी  डाली है 
आग    गरीबी   की     मैंने लगायी है 
उस पे वादों    वाली  हांडी     चढ़ाई है
शहर के सुन्दरीय करण वाला चावल है 
मटर के दाने जैसा गंगा जी का पूल है 
सड़कों और नालियों का इसमें नमक भी है 
नौकरी     रोज़गार    वाला  देशी घी है 
भूखी इस जनता की आँखों का पानी है 
खिचड़ी बनाने की बस ये कहानी है 
बनी हुई खिचड़ी मई लोगों को खिलाऊंगा 
भारी मतों से  फिर     संसद जाउंगा  
मैंने कहा नेता जी संसद जायेंगे 
वहाँ पर खिचड़ी वाली सरकार चलाएंगे 
पूरी     मलाई      अकेले    खायेंगे 
हम को कब तक खिचड़ी खिलाएंगे 
हम को कब तक खिचड़ी खिलाएंगे 

Thursday, January 2, 2014

मेरे गॉंव की ठण्ड

वो सुबह-सुबह आ जाती है मेरे घर की खुली खिड़की से.
न जाने क्यों उसकी धूप से नही पटती है 
दिनभर उससे लड़ती रहती है.. 
उसके सपने बहुत बड़े हैं 
वो छा जाना चाहती है घर मकान पे  
खेत खलियान पे,हर तरफ- चारो तरफ 
वो मुझे जबरदस्ती खींचकर कमरे से 
ले जाती है आग के अलाव के पास 
और खुद मुह फुलाकर बैठ जाती है दूर 
चिड़चिड़ी ,मुहचड़ी ,मगरूर 
भूनी हुई मटर की  फलियाँ बड़े चाव से खाती है 
गर्म चाय की चुस्कियां उसे बहुत लुभाती हैं 
उसकी शरारत पर मुझे कभी बहुत प्यार आता है 
मन करता है दुबाकर उसे सुला लू रज़ाई में 
उसकी वजह से घर में काफी बदलाव आ गया  है 
बाऊ जी को पानी गर्म करना आ गया है 
बँटी का स्कूल ना जाने का बहाना
घुटने तक हाथ पैर धोना ना नहाना
वो घुस जाती है यहाँ वहाँ -जहाँ तहां
मंदिर के कमरे में आरती करती हुई  माँ
उसे कांपते हुए हाथो से भगाती है
फिर भी न उसे मलाल है न घमंड
वो है मेरे गॉंव  की ठण्ड
जी हाँ मै गॉंव कि ठण्ड को बहुत याद करता हूँ। 
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