Thursday, January 2, 2014

मेरे गॉंव की ठण्ड

वो सुबह-सुबह आ जाती है मेरे घर की खुली खिड़की से.
न जाने क्यों उसकी धूप से नही पटती है 
दिनभर उससे लड़ती रहती है.. 
उसके सपने बहुत बड़े हैं 
वो छा जाना चाहती है घर मकान पे  
खेत खलियान पे,हर तरफ- चारो तरफ 
वो मुझे जबरदस्ती खींचकर कमरे से 
ले जाती है आग के अलाव के पास 
और खुद मुह फुलाकर बैठ जाती है दूर 
चिड़चिड़ी ,मुहचड़ी ,मगरूर 
भूनी हुई मटर की  फलियाँ बड़े चाव से खाती है 
गर्म चाय की चुस्कियां उसे बहुत लुभाती हैं 
उसकी शरारत पर मुझे कभी बहुत प्यार आता है 
मन करता है दुबाकर उसे सुला लू रज़ाई में 
उसकी वजह से घर में काफी बदलाव आ गया  है 
बाऊ जी को पानी गर्म करना आ गया है 
बँटी का स्कूल ना जाने का बहाना
घुटने तक हाथ पैर धोना ना नहाना
वो घुस जाती है यहाँ वहाँ -जहाँ तहां
मंदिर के कमरे में आरती करती हुई  माँ
उसे कांपते हुए हाथो से भगाती है
फिर भी न उसे मलाल है न घमंड
वो है मेरे गॉंव  की ठण्ड
जी हाँ मै गॉंव कि ठण्ड को बहुत याद करता हूँ। 
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